Dr. Ambedkar: अम्बेडकर के अनुसार मेहनतकश वर्ग के असली दुश्मन कौन?
मेहनतकश वर्ग को ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद से लड़ने और आर्थिक आजादी हासिल करने के लिए प्रेरित करने वाले उनके विचार।

Dr. Ambedkar: ने 12 फरवरी 1938 को नासिक के मनमाड़ की एक सभा में लम्बे भाषण में कहा था कि अभी तक दलितों ने अपने सामाजिक कष्टों के निवारण के लिए आंदोलन किये है लेकिन आर्थिक कष्टों से मुक्ति के लिए अभी तक सोचा ही नहीं, जो बहुत जरूरी है काफी लम्बे समय से यह विचार उपेक्षित रहा है।
दलित वर्ग के कामगारों की उस सभा में बाबासाहेब ने कहा कि “इस देश में मेहनतकश वर्ग के दो दुश्मन है ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद।
ब्राह्मणवाद से मेरा मतलब एक समुदाय के रूप में ब्राह्मणों की शक्ति, उनके अधिकारों व हितों से नहीं है बल्कि इस अर्थ में ब्राह्मणवाद का अर्थ है स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व की भावना का विरोध करने वाली व्यवस्था व मानसिकता।
ऐसे में यह सोच सभी वर्गों में व्याप्त है और सिर्फ ब्राह्मणों तक सीमित नहीं है।
ब्राह्मणवाद कुछ वर्गों को सुविधा सम्पन्न और विशेषाधिकार प्रदान करता है तो दूसरी ओर मेहनतकश शोषित वर्गों को अवसरों की समानता से वंचित करता है।
ब्राह्मणवाद इतना सर्वव्यापी है कि यह आर्थिक अवसरों के क्षेत्र को भी प्रभावित करता है।
डॉ. अम्बेडकर ने सन् 1938 में ही सामाजिक की बजाय आर्थिक मुद्दों पर दलित आंदोलन को केन्द्रित करने का आह्वान किया था।
उन्हें ब्राह्मणवाद का विरोध करने की बजाय सिर्फ ब्राह्मणों का विरोध करना गलत बताया था।
उनकी दृष्टि में जातियों के बीच खान पान, शादी आदि पर रोक ब्राह्मणवाद की छोटी समस्याएं थी दरअसल बड़ी समस्या तो दलितों के आर्थिक अवसरों पर रोक थी लेकिन आजादी के बाद दलित संगठनों ने डॉ. अम्बेडकर के मुख्य आर्थिक उद्धार के आह्वान की उपेक्षा की और सारी ऊर्जा ब्राह्मणवाद की उन समस्याओं के निवारण के लिए लगाते रहे जिनका संबंध मानसिक परिवर्तन से है और जो डॉ. अम्बेडकर की नजर में छोटी समस्याएं थी।
उन्होंने कहा था सवर्ण हिन्दुओं के शस्त्रागार के मुख्य हथियार है आर्थिक शक्ति।
इसी प्रभावशाली तेज हथियार के आधार पर उनमें उच्चता के भाव है तथा दलितों को हेय समझते है और उनकी आर्थिक सम्पन्नता के कारण ही मेहनतकश दलित गरीबी व गुलामी भोग रहे है।
आर्थिक आजादी का रास्ता संघर्ष है
दलितों की आर्थिक आजादी पाने के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाना होगा।
“पहले खुद से संघर्ष करना होगा।”
उन्हें बाल विवाह, शराब, दहेज, विधवा विवाह निषेध, तलाक अधिक संतानों को पैदा करना, स्वयं की हीन भावना, धार्मिक कर्मकांड़ों, आडम्बरों जैसी सामाजिक धार्मिक कुरीतियों से संघर्ष करना होगा।
यह लड़ाई सामाजिक नहीं बल्कि आर्थिक है।
इसका समाधान उच्च वर्ग के हिन्दू नहीं बल्कि खुद को करना होगा।
सन् 1925 में बम्बई की एक सभा में डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि — “ऐ भारत के गरीबों, दलितों, शोषितो ! तुम्हारी मुक्ति का मार्ग धर्मशास्त्र व मंदिर में नहीं है बल्कि तुम्हारा उद्धार उच्च शिक्षा, व्यवसायी बनाने वाले रोजगार उच्च आचरण व नैतिकता में निहित है।
तीर्थयात्रा, व्रत, पूजा पाठ, कर्मकांड़ों में कीमती समय बर्बाद मत करो।
धर्म ग्रंथों का अखंड पाठ करने, यज्ञों में आहुति देने व मंदिरों में माथा टेकने से तुम्हारी दासता दूर नहीं होगी।
तुम्हारे गले में पड़ी तुलसी की माला गरीबी से मुक्ति नहीं दिलाएगी।
देवी देवताओं की मूर्तियों के आगे नाक रगड़ने से तुम्हारी भूखमरी, दरिद्रता व दासता दूर नहीं होगी।
अपने पुरखों की तरह तुम भी चिथड़े मत लपेटो, सड़ा गला अनाज खाकर जीवन मत बिताओ, दड़बे जैसे घरों में मत रहो और इलाज के अभाव में तड़प तड़प कर जान मत गंवाओ।
भाग्य व ईश्वर के भरोसे मत रहो, तुम्हे अपना उद्धार खुद ही करना है।”
अम्बेडकर ने दलितों को कहा था कि उन्हें अनुकम्पा व संरक्षण में जीने की आदत खत्म करनी होगी यह तभी संभव है जब आर्थिक रूप से मजबूत हो।
उन्होंने आरक्षण पर उतना जोर नहीं दिया जितने आज के दलित देते है।
उनका मानना था कि आरक्षण एक अस्थायी व्यवस्था है और इतने से लाभों को स्थायी करना अनुचित है।
आरक्षण से केवल परावलम्बता बढ़ेगी जबकि वे दलितों को स्वावलम्बी बनाना चाहते थे।
वे अपने समाज को आरक्षण की वैशाखी की बजाय खुद के पैरों पर दौड़ना चाहते थे इसलिए आरक्षण नीति को हमेशा के लिए जारी रखने के वे खिलाफ थे।
आरक्षण की व्यवस्था जातियों को जिंदा रखेगी और जातियां असमानता व शोषण को जिंदा रखेगी।
वे दलितो को हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था से मुक्त कराना चाहते थे।
इसलिए इसी जाति व्यवस्था के संकीर्ण दायरों को तोड़कर दलितों को शहरों की ओर जाने के लिए आह्वान करते थे।
उन्हें मालूम था कि एक ब्राह्मण, व्यापारी, जमींदार, क्षत्रिय दलितों को मंदिर में प्रवेश दिला सकते है लेकिन व्यवसाय, व्यापार या कारखाने में भागीदार नहीं बनाएगे।
इसलिए दलितों को अपने उद्धार के लिए खुद को ही संघर्ष करना होगा।
गांव छोड़ो शहर जाओ, शहर छोड़ो विदेश जाओ
डॉ. अम्बेडकर के आर्थिक उत्थान के लिए इतने दृढ थे कि एक जीवन तो क्या कई जन्म इसके लिए न्यौछावर कर सकते है।
एक सभा में कहा था- “मेरी दृढ प्रतिज्ञा है कि मैं उन दलितों की सेवा व हित में मरूं जिनके बीच मेरा जन्म हुआ, पालन पोषण हुआ और रह रहा हूं।”
उन्होंने दलितों को आह्वान किया कि वे अपने रोजगार धन कमाने व रोटी की व्यवस्था के लिए स्वावलम्बी हो जाये और दूसरों के आगे हाथ नहीं फैलाएं।
आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर व समृद्ध हुए बिना दरिद्रता व दासता दूर नहीं होगी।
इसके लिए दलितों के खुद के हुनर, खुद के छोटे बड़े उद्योग और खुद की उत्पादन प्रणाली को विकसित करना होगा।
बाबासाहेब बार बार दलितों को उनकी योग्यता, क्षमता, हुनर व उत्पादन करने की ऊर्जा का एहसास कराते थे।
दलितों में उत्पादन की ऊर्जा का भंडार है।
हर क्षेत्र के उत्पादन में दलितों का योगदान है।
खेत, सड़क, कारखानें, भवन, रेल विकास, मशीनरी आदि में मेहनतकश दलितों का भारी योगदान है।
दलितों के खून पसीने से हरे भरे खेत लहलहाते है, बड़ी बड़ी रेल योजनाएं व शहरों की संस्.तियों का निर्माण हो रहा है, दलितों की मेहनत से उद्योगों कारखानों की मशीनें चलती है, इन्हीं मेहनतकशों की मेहरबानी से धन्ना सेठों की डाइनिंग टेबल पर पांच पकवान सजते है।
लेकिन खुद दलित गरीबी व अभावों का जीवन जी रहा है, शोषण का शिकार हो रहा है क्योंकि मेहनतकश दलितों में संगठन नहीं है, सामाजिक व आर्थिक जागरूकता की कमी है, मार्केटिंग की कला चतुरता नहीं है।
इसके लिए मौजूदा बिजनेस व मार्केट की व्यवस्था को समझना होगा अपनी मेहनत व उत्पादन का लाभ लेना सीखना होगा, बाजार व्यवस्था से संघर्ष करना सीखना होगा।
बाजार व बिजनेस की बारीकियां को समझ कर आर्थिक समृद्धि की राह चलना होगा।
बाबासाहेब का कहना था कि दलितों को अपने उत्पादनों व अपने व्यवसायों के अधिकारों के लिए खुद आगे आना होगा।
गांवों में रोजगार व बाजार के अवसर सीमित है इसलिए कस्बों, शहरों व विदेशों में जाना होगा।
शहरों में शिक्षा के कारण दरिद्रता दूर होती है, दलितों पर जातिगत अत्याचार नहीं होते है, पुलिस व प्रशासन की मदद मिल जाती है।
शहर में आने के बाद दलित जातिगत समस्याओं से मुक्त होगा तो आर्थिक विकास के बारे में सोचेगा वरना गांव में मंदिर प्रवेश, छुआछूत से मुक्ति, कुएं पर पानी भरने या दूल्हे को घोड़ी पर बैठाने जैसे मुद्दों में उलझ कर जिंदगी बर्बाद कर देता है।
वे गांव में एक मजदूर दिनभर सड़कों व खेतों में हाड़तोड़ मेहनत करता है और शाम को खाना खाकर सो जाता है और पीढ़ी दर पीढ़ी यह परम्परा रहती है।
आर्थिक मुक्ति के लिए अंबेडकर ने कहा कि खेती, मजदूरी या सिर्फ पुश्तैनी धंधों के अलावा सिलाई, दुकान, मकान निर्माण, व्यापार, ठेकेदारी, सप्लाई आदि नये क्षेत्रों में घुसना चाहिए।
इससे व्यवसायिक ढांचे में बदलाव होगा।
(Dr. Ambedkar) (Dr. Ambedkar) (Dr. Ambedkar) (Dr. Ambedkar) (Dr. Ambedkar) (Dr. Ambedkar) (Dr. Ambedkar)
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